Monday 4 September 2023

Ahha

आवारगी: सुनो:   जब  मधुश्रुत की पागल बयार छाएगी  सूनी रजनी दुल्हिन सी शर्माएगी  तब  सुबह सेज के सुमनों को छू लेना  इनमें तुमको मेरी सुगंध आएगी  (अज्ञात ) 

Saturday 3 June 2023

आवारगी:  वाह रे भई !  फूफी सितारा मेरे बचपन की  उन क़दीम या...

आवारगी:  वाह रे भई !  फूफी सितारा मेरे बचपन की  उन क़दीम या...:  वाह रे भई !   फूफी सितारा मेरे बचपन की  उन क़दीम यादों में से हैं जो अपनी चमक दमक और रोशनी से बहुत देर तक ज़हन  पर छाये रहते हैं. उनके परांदे...

Sunday 23 August 2020

उत्तम क्षमा

 क्षमा 

क्षमा क्षमा प्रियवर

आत्मीय, वंदनीय क्षमा ! 

हर दुर्बलता वश हुए पाप पर 

हर झूठ, हर द्वंद, हर कलाप पर 

हर युद्ध, हर वध, हर प्रपंच छल पर 

हर दीनता, हर विवश हल पर 


क्षमा करना हे आत्मीय मुझको 

कि जन्म मानव का मिला है 

दानव कर्म भी करने होंगे 

पाप और पुण्य से आगे 

मुझको  कुछ कर भरने होंगे 


कच्ची मिट्टी का घट हूँ 

ईश्वर की कमज़ोर कृति हूँ 

भारी मन से क्षमा दिवस पर

प्रिये! तुम्हारे समक्ष नति हूँ 


क्षमा दान दे कर के मुझको 

तुम भी अपने कर्म सजा लो 

एक तनिक सी भिक्षा देकर 

तुम अमरों का लोक ही पा लो 

           डॉ सेहबा जाफ़री🙏🙏🙏🙏 (उत्तम क्षमा)

Wednesday 4 March 2020

अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो



           हाँ! वह " औरत " है ज़मीन पर रब के तमाम एहसानों में से एक बेशक़ीमती एहसान।  ज़मीन की ज़ीनत , ज़िन्दगी की तल्ख  फ़िज़ाओं में  राहत-बख़्श झौंका! दर्द की दवा, थके हुए ज़हन का आराम ; रेगिस्तान सी प्यास में ज़िन्दगी की ठंडी फ़ुहार।  जो न हो तो कायनात की पूरी धड़कन रुक जाए. जिसके दम से यह सय्यारा रश्केजिना है और जिसके होने से फूल,सितारे, खुशबू, रंग, परिंदे सबके विजदान में  एक कशिश सी महसूस होती है। जो ज़मीन के अधूरेपन को पूरा करने ही उतरी है और जो न हो तो सब अधूरा है. हाँ वह सचमुच औरत ही तो है जो ज़मीन को जीने के तमाम सुख मुहैय्या कराती है. खुद दुख सह कर भी. जो न हो तो किसी साज़ पर कोई सुर न हो. पर क्या वे सब भी यह सोंचती है? क्या उन्हें अपनी अहमियत पता है? क्या अपने वुजूद पर वह नाज़ करती हैं या खुद को ज़मीन का ज़र्रा ही मानती हैं?


इस महिला दिवस पर महिलाओं के वक्तव्य से ही अगर जानें कि औरत होने पर कैसा लगता है तो शायद हम जज़्बातो की उस नब्ज़ को पकड़ पाएंगे जहाँ सामाजिकता के सारे सरोकार आ कर ठहर जाते हैं।  डॉ  जया शर्मा , (प्राध्यापक कृषि-विभाग) विभागाध्यक्ष, मध्यांचल प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भोपाल कहती हैं, महिला होकर, सर उठा कर जीना उनके लिए गौरव की बात है. समाज महिलाओं ले लिए क्रूर है  किन्तु वह समाज को बदलना नहीं चाहती , वह बदला हुआ समाज चाहती है.  वे महिला होकर खुद को कभी अक्षम नहीं मानतीं; उनकी प्रतियोगी वे स्वयं हैं, वे रोज़ खुद को खुद से बेहतर बनाना चाहतीं हैं. वे शीशा देखती हैं तो स्वयं को अपनी माँ की प्रतिछाया पाती हैं. वे  रोज़ कुछ बेहतर करने से प्रसन्न होती हैं.




          पटेल ग्रुप ऑफ़ इंस्टीट्यूशन्स भोपाल की  चंचल चुलबुली नन्ही सी प्रोफेसर सुश्री दीपांजलि जितनी सुन्दर हैं , उतनी हंसमुख भी , रसायन शास्त्र की प्रोफ़ेसर होने के नाते जीने के लिए कितने और कैसे रसायनो का प्रयोग करना होता है वह भली भांति जानती हैं. महिला होकर वे खुद को बहुत खास महसूस करती हैं, पुरुषों  से कहीं ज़्यादा अलग, छात्रों पर उनका अनुशासन और प्रेम किसी भी अर्थ में किसी पुरुष प्रोफ़ेसर से कम नहीं।  वे कभी भी पुरुष होना नहीं चाहतीं। अपने सौंदर्य को वह अपनी ताक़त मानती हैं, अपने ज्ञान को अपनी पूंजी और प्रोफ़ेसर पिता की प्रतिछाया होने पर भीं माँ को अपना प्रथम गुरु मानती हैं. उनकी नज़र में खुद का महिला होना बहुत अहम् है।

   राधारमण कॉलेज ऑफ़ फॉर्मेसी भोपाल की नन्ही और नमकीन सी प्रोफ़ेसर मधु किसी भी कीमत पर अपने स्त्रीत्व को किसी से काम नहीं आंकती. वह आत्मनिर्भर हैं और बेहद मज़बूत।  फॉर्मेसी उनका जीवन है और वे स्त्री होने से  खुद को कहीं भी अपने प्रोफेशन में मिसफिट नहीं पातीं। वे सजती भी हैं, संवरती भी हैं, उन्हें रंग भी पसंद हैं और खुल कर और खुश होकर जीना भी. वह  एक दिन कॉलेज न आएं तो उनकी कमी दीवारों और दरवाज़ों को भी लगती है.  वह अगर कॉलेज बस में  न हों तो  उस दिन  कोईं पटेल सर को न सताये। वह खुद को ज़िंदगी का पैगाम मानती हैं. वह कहती हैं, यह सब स्त्री होकर ही जिया जा सकता है. भगवान् कभी पुरुष सा रूखा जीवन न दे!!!


                     राधारमण कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी की कम्प्युटर साइंस की नटखट प्रोफ़ेसर कोमल पांडे भी स्त्री होकर बहुत खुश हैं.  बेहद चुलबुली,  हंसोड़ , संघर्षरत ,ज़िम्मेदार और ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीने वाली कोमल पांडे अपने आप में एक राग  भरा गीत हैं. गाना, दौड़ना , खेलना , बंजी जम्पिंग करना और तो और किसी भी ज़िम्मेदारी से न भागना  उनकी पहचान है. उनका कहना है " स्त्री होकर आप वे सब तो कर ही सकते हैं जो एक पुरुष करता है किन्तु वह भी कर सकते हैं जो एक पुरुष इस जीवन में कभी नहीं कर पाता। हम स्त्री होकर छोटी छोटी बेमतलब की बातों पर खूब खुल कर हंस सकते हैं, हम खुल कर रो सकते हैं, हम लाड भी वसूल सकते हैं. हमें कोई किसी उपमा में नहीं बाँध सकता। हम स्त्री होकर पूरी हैं. हम हर स्थिति से उबर सकती हैं, हम सक्षम हैं."

             राधारमण  ग्रुप ऑफ़ कॉलेजेस  की काउंसलिंग हैड दीपाली जैन जब डेस्क पर बैठती हैं तो कोई भी एडमिशन निरस्त नहीं हो सकता।  नन्ही सी दीपाली जी का कैरियर बड़ा चुनौती भरा है. लोगों को कन्वेंस कर लेना उनके लिए छोटी सी बात है और वे काउंसलिंग में महिलाओं को पुरुषों से ज़्यादा श्रेष्ट मानती हैं।  दीपाली जी कहती हैं कि महिला होकर वह बहुत खुश हैं और उन्हें खुशी है कि  वे सारे हल्के- गहरे रंगों की पहचान कर लेती हैं , पुरुष बेचारे !!! उन्हें तो रंगों की भी समझ नहीं होती।
      प्रो नेहा लस्तामी , प्रो परवीन अंसारी , प्रो सृष्टि तिवारी , प्रो आकांक्षा और प्रो नीलोफर , सब के सब अपने लड़की होने से प्यार करते हैं. भागते दौड़ते जीवन  की हलचल सबके पास है, किसी के पास घर की ज़िम्मेदारी है तो कोई माँ पिता की ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहा है. कोई अकेला है तो कोई हुजूम के साथ. किसी के पास शब्दों के अम्बार हैं तो कोई निरी  निशब्द। किसी के पास समाज है तो कोई सामाजिकता से दूर। पर एक चीज़ सबके पास सामान है , वह है वर्जनाएं ! महिला होकर सबके पास आप  बहुत सी रस्सियां और सीमाएं हैं।  सबको क्षितिज छूना हैं सबको अपने हिस्से का हँसना है, सबको अपने हिस्से की महत्वाकांक्षा पूरी करनी हैं और सब की सब पहाड़ देख  कर चांदनी सी छिटक जाती हैं।  सबको प्यार करना है, सबको प्यार पाना भी है , सबको गीत भी गाने हैं, ज़िंदगी भी संवारनी है पर  सबका भेड़ियों को लेकर एक जैसा ही  डर है. सब दिन से प्यार करती हैं रात सबको खौफज़दा कर देती है।
                                         ये  इश्वर की नन्ही परियां अस्तित्व नहीं अस्तित्व सार्थकता चाहती हैं; बहुत रात को सड़क पर अकेले होने पर सहायता नहीं आपसे दिशा चाहती हैं; ये सजती हैं तो इसलिए नहीं कि कोईं  इन्हे घूर घूर कर देखे, ये सुन्दर हैं तो इसलिए नहीं कि आप  पिपासु हो उठें , ये  गाती हैं तो इसलिए नहीं कि आप हवासनाक हो जाएँ। आप यदि सचमुच पुरुष हैं तो मित्रता में इनका वह कंधा  बने जिस पर वे आँख लगा थोड़ा सुस्ता लें ;  भ्रातत्व में  उसकी भोली शरारतों में साथ बने ; पितृत्व में उसके लिए अपनी मज़बूत बाहों का झूला बने,  पुत्रत्व में कभी कभी उनको भी गले से लगा लें , और साख्य  में बने उसके वह मधुर प्रेमी  जिसको वे मंदिर की चौखट समझ अपना हर दुःख सुख साझा कर लें। उसे हतोत्साहित कर उसके कर्म यज्ञ में बाधा डालना पुरुषत्व नहीं , अपने सहयोग से उसका कार्य निखार देना आपका पुरुषत्व है.
      याद रखिये, पुरुष इसीलिए पुरुष है कि  स्त्री स्त्री है. स्त्री और पुरुष ज़िंदगी का रास्ता  जल्दी जल्दी तय करने के पहिये नहीं बल्कि रास्ते का आनंद उठाने के दो साथी हैं , धीमे धीमे , प्यार से जीवन जी लेने के लिए. पुरुषों को पुरुष होने पर प्रणाम और स्त्री को स्त्री बने रहने पर नमन
  

Friday 13 February 2015

वेलेंटाइन- स्पेशल

दिल एक दरिया दश्त किनारे
                                                         - सेहबा  जाफ़री



" आह! वह कोई सुरमई शाम की साईत रही होगी।  दिन वही, जिन्हे ज़मीन पर दिसंबर के शुरुआती दिन कहा जाता है. फ़रिश्ते गोश्त के जिस नाज़ुक गुलाबी अज़ाँ  को ठोक -पीट कर  तैयार कर रहे थे वह दिले - माशूक़ था
बोलते बोलते अफ़्शाँ ने कॉफ़ी  का एक घूँट लिया।  
 " फ़िलॉस्फ़र ! लुक़्मान आता होगा, बंद  करो ये, और अपने चेहरे पर पोछा  मार लो !" 'अर्शान' अफ़्शाँ  का इकलौता भाई थोड़ा तल्ख़ अंदाज़ में बोला  कि अज़रा जो अदब की मास्टर्स ले रही थी, अफ़्शाँ की पसंदीदा स्टूडेंट थी और असद शिराज़ी की तहरीर समझने उसके पास आयी थी, सकते में गई।  
'अर्शान' अब क्विन के साथ कवर जीत कैरम टेबल से उठने की जल्दबाज़ी करने लगाअफ़्शाँ  ने उसकी आवाज़ को अनदेखा किये बिना पढ़ाना जारी रक्खा।  
" माशूक़ के दिल को तरह तरह की अज़ीयतें देकर जब रब ने फ़रिश्तों से कहा कि इसे उस लड़की के लगा दो कि जिसके सामने क़लम रक्खा जाए और वह इसे फ़ौरन उठा ले।
" फिर ?"  अज़रा का मुँह  हैरतअंगेज तरीके से लाल हो रहा था
" फिर ! " एक लम्हे को रुकी अज़रा की आवाज़।  आँगन में गहराता सन्नाटा और एक पसरी सी खामोशी।  फिर यूं हुआ , बेले के झुरमुट में शाम के बाद रात की नीम तारिकियाँ  छाने लगीं। अफ़्शाँ का दिल बैचैन होने लगा और दूर सड़क से गुज़रती अल्वी की बाइक , अजीब सा शोर किये , उसके जज़्बातों से होकर गुज़र गयी।  अक्सर होता भी यही है, उसका  खाना- पीना, सोना- उठना, बैठना जीना -जागना जैसे सब अज़रा के अंदर से होकर ही गुज़रता था; ना ! " ज़ुलैख़ा " नहीं थी वह !!!! अल्वी उसे अक्सर कैंटीन में साथ साथ कॉफ़ी  पीते, " हीर " कहा करता था. और  उसकी तमाम  हश्शाश्  हसरतें उसके सीने में रक़्स करने लगती थी।  अपने चेहरे के तमाम रंग  अपने इकलौते भाई से छुपा कर वह असद शिराज़ी को कन्टीन्यु  करने लगी
" फिर वही ! दिल- -माशूक़ बड़ी आजिज़ी से बहुत सारी दोशीज़ाओं के नज़दीक बारी बारी लाया गया ; चाँदी  की परात में , उसके एक हिस्से पर क़लम, और दूसरे हिस्से पर चूड़ियाँ और बीच में दिल को बड़े एहतेमाम से सजाया  गया ……… 
" में' ! आप कहें तो कल जाऊं " अज़रा मौके की नज़ाकत को कुछ कुछ समझ रही थी 
"नहीं !" अबके अज़रा का लहजा कुछ कड़क थाआगे असद शिराज़ी लिखते हैं, " किसी भी लड़की ने दिल पर नज़र नहीं डाली , और चहकती हुई चूड़ियों पर लपकने लगीं। फेहरिस्त के आखिर में खड़ी आरज़ुओं  के गांव में उतारी जाने वाली एक साँवली - सलोनी लड़की को बेसाख्ता क़लम पर प्यार  गया, और .……… " 
" बेटे ! इधर आइये।
अब्बू ने बेहद मोहब्बत से उसे आवाज़ दी। 
" जी!" उसकी आवाज़ में बेहद उदासी थी 
" नही करनी  आपको इससे शादी ? " 
उसकी आँखों से दो बूँद आंसूं निकले और अब्बू ने इसे सीने से लगा लिया , " कोई बात नहीं ! जब तक दिल न चाहे कोई बात नही"  अर्शान ने उसे घूर कर देखा, और वह दिलो जान से असद शिराज़ी पढ़ाने बैठ गई।  
" माशूक़ का दिल बेहद प्यारा था, साफ़ सफ़ेद , सुबह सुबह खिल आये ताज़े मोगरे जैसा; उसमे मोहब्बत करने की  ताब थी और हज़ार क़ुसूर के बावजूद भी  अपने आशिक़ को माफ़ कर देने का बेहद खुदाई सा जज़्बा !" 
" में'! रात गहराने लगी है, आप इजाज़त दें तो इसे कल मुकम्मल करलें ! " अफ़शाँ ने मुस्कुराते हुए उसे विदा किया  
            इस वाकिये को बारह साल गुज़र गए, अफ़्शाँ  और अल्वी की मोहब्बत शिया -सुन्नी की फ़िरक़ा परस्ती निगल गयी, मौसम बीतते गए और उसे  असद शिराज़ी की तहरीरें पढ़ाने  में महारत हासिल हो गई।  आज पूरे बारह साल बाद , कश्मीर यूनिवर्सिटी  ने असद शिराज़ी पर लेक्चर देने इन्वाइट किया है।  दिल-फरेब जगह है ये; बर्फ की सफेदी के नीचे से झांकते सब्ज़े और सुर्खी, बिल्कुल अज़रा के अपने लिबास जैसे। वह कोई गहना नहीं पहनती, उसने  आँखों में  कभी काजल नहीं लगाया  फिर भी दर्जनो आँखें बेहद मोहब्बत और कशिश से उसे तकतीं  हैं  . 
            स्टूडेंट्स ने गेट पर जम कर उस पर  फूल बरसाए और वह बंद होंठों की मुस्कराहट से  उनका इस्तक़बाल समेटती स्टाफ से मुख़ातिब हुई।  सारा डिपार्टमेंट , दीगर डिपार्टमेंट की  कुछ और हस्तियां।  मैथ्स डिपार्टमेंट के अल्वी सर सबको  क़हवा  पिला रहे थे।  अल्वी की गर्म अंगुलियाँ  अज़रा की अँगुलियों को इत्तेफ़ाकन छू  गयीं। 
" पहचानाअज़रा की खामोश आँखों में मोहब्बत की हज़ारों क़न्दीलें रोशन सी हो उठीं 
" शायद   ……… बा ……ना  ……… 
ओह्ह! छनाक  से कुछ टूटा उसके अंदर और खुद को समेटने  की कोशिश में उसकी अंगुलियां लहू-लुहान होने लगीं। 
“चलिए!” ऑडिटोरियम की तरफ निगाहें करते प्रिंसिपल सा'  ने बेहद अदब से इशारा किया। 
" जिसने क़लम उठाया , फरिश्तों  ने  उनके रिश्ते चूड़ियों से तर्क कर दिए, उनकी ज़िंदगी के केनवस अब बदरंग हो गए थे , उनके चेहरे पर अब कोई रंग नहीं था, अगरचे मोहब्बत के नूर से उनका चेहरा झल मारता था. उनके बालों को कोई गजरा नसीब नहीं था , बहारें उन पर मिस्मार थीं उनके दरवाज़े पर सिर्फ एक ही मौसम होता था, हिज्र का मौसम; चांदनी रात में भी ठंडक को तरसती  उनकी रूहें रोती थीं
आगे असद शिराज़ी  लिखते हैं
फिर भी!  फिर भी वे आशिक़ की बड़ी से बड़ी ग़लती  को  माफ़ कर देने  का जिगर रखतीं थीं , फिर चाहे तो बेअदब आशिक़ अपनी माशूक़ का नाम भी भूल जाए …… "    
उसकी आवाज़ का सुरूर उसके सांवलेपन में खिलता, स्टूडेंट्स के दिलों में उतर गया, और उसकी आँखें अल्वी के चेहरे पर सुकून तलाशने  में जुट गयीं बिलकुल  दश्ते वीरानी के किनारे , किसी दरिया  जैसी.